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असुरक्षात्मक मौन का दौर

bajaar
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एक लंबी ख़ामोशी । घनघोर चुप। सन्नाटे की इस लकीर को थोड़ी बहुत तोड़ती-छेड़ती कुछ एक घटनात्मक ख़बरें । नक्सलियों  ने पुलिसवालों को मार दिया या पुलिस वालों ने नक्सलियों  को मार दिया। प्रणब, पानी, नदी बरसात तक सिमटी, मैली कुचली भारतीय पत्रकारिता। सुबह सोकर उठने से लेकर प्लान बनाने की सोच तक सिमटी पत्रकारिता। शाम को सीट पर पहुंचकर विज्ञप्तियां निपटाने की पत्रकारिता। कुछ लोग कहते हैं कि यह पत्रकारिता का संक्रमण काल है। मुझे तो इस बाबूगिरी में किसी ओर से ऐसी छटपटाहट नजर नहीं आ रही है। संक्रमण काल की छटपटाहट, कुछ कर गुजर जाने की चाहत अगर थोड़ी बहुत कहीं नजर आती भी है तो इंटरनेट पर। असहमतियों का स्वागत है।

भारत में, जितना मैनें देखा है, किसी भी माध्यम को आसानी से हजम नहीं किया जाता। और अगर हजम हो भी गया तो कहा जाता है कि अरे, ये तो पहले से ही हमारे पेट में था। हमने तो बस इसे देखा नहीं था। लोकपाल की मांग तो चल रही है, पर क्या  हम ईमानदारी से सूचना का अधिकार अधिनियम हजम कर पाए हैं? हालांकि जब हजम कर लेंगे तो कई लोग शर्तिया यही कहेंगे कि हमें तो पता था कि ऐसा होकर रहेगा। लेकिन अब से हजम करने के वक्फे में कितने लोग तबाह हुए, बरबाद हुए, जेल गए, परिवार छूटा, दोस्त बिछड़े, क्या ये भी आसानी से हजम हो जाएगा?

काफी कुछ यही हालत इस समय हमारे देश में इंटरनेट की है। हिंदी ब्लागिंग के शुरुआती दौर से मैं इसके साथ रहा हूं। सिंगल ब्लॉग से मल्टीपल यूजर्स ब्लाग  और फिर उसी ब्लाग से एक छोटी मोटी न्यूज, आर्टिकल, व्यूज वेबसाइट्‌स बनती देखी हैं। कुछ साथी ऐसे भी रहे जिन्होंने ब्लागिंग  जारी रखते हुए लीक से हटकर चलना पसंद नहीं किया और वह दुनियावी रूप से आज सुखी हैं। पर जिन्होंने विश्र्व के साथ कंधे से कंधा मिलाया, इमानदार न्यूज़ और वियुज  छापे, वह मानसिक रूप से सुखी तो हैं, पर दुनियावी रूप से दुखी हैं।

खबरों के जिस ब्लास्ट को हम ईवनिंगर समझकर ज्यादा महत्व नहीं देते थे, इन वेबसाइट्‌स ने देश विदेश में उनका महत्व बढ़ाया और हम कहने पर मजबूर हुए कि हां…खबर तो है। इन्होंने न सिर्फ बड़ी खबरें ब्रेक कीं, पत्रकारिता के मानदंडों पर तकरीबन खरा उतरते हुए सच की सड़क बनाई। पर इस सड़क को बनाने में कई खेत रहे और आज भी लगातार परेशान किए जा रहे हैं। इनकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इनके सबसे बड़े दुश्मन हम पत्रकार ही हैं। दरअसल हम अब पत्रकार कम, बाबू ज्यादा बन गए हैं। हममें गहरी असुरक्षा घर कर गई है। नौकरी न रही तो जाएंगे कहां?

ये दौर इसी असुरक्षात्मक मौन का है। वो दौर तो गया जब झोला लटका के, चप्पल चटका के दो की तीन चाय में देश के प्रधानमंत्री के तीन अलग अलग घोटालों को छापने की बात होती थी। अब तो हमारा तीसरी प्याली के दोस्त को प्रधानमंत्री का चपरासी किसी झूठे मुकदमे में फंसाकर बंद करा दे, हममें से किसी के मुंह से बोल नहीं निकलने वाले। आखिरकार प्रधानमंत्री का चपरासी जो है। बाबू जो हैं…डरेंगे तो चपरासी से ही। वो दौर कहां रहा जब पत्रकार खबर के लिए संपादक या मालिक से भिड़ जाते थे। वो तो अब यादों में ही हैं। वैसे कई लोगों को कहते सुना है कि याद वही आता है, जो भूल जाता है।

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